क्या लिविंनरेशनशिप को स्वतंत्रता और मॉडर्न के नाम पर वेस्टर्न कल्चर को भारत की संस्कृति में माननीय सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा थोपना कितना सही है
क्या सुप्रीम कोर्ट के जजेज वामपंथियों, वेस्टर्न कल्चर और अंग्रेजी शिक्षा और विचारधारा के शिकार हो गए है?
आजकल नवविवाहिताओं और विवाहिताओं द्वारा पति की हत्या करने/कराने के ट्रेंड सा चल पड़ा है। हिंदू परिवारों में सामान्यतः दो ही बच्चे हैं, एक बेटा और एक बेटी। अपवाद हैं, लेकिन अधिक नहीं हैं। सोचिए कि किसी का इकलौता बेटा किसी हत्यारी पत्नी के चंगुल में फंस जाए और उसकी हत्या हो जाए तो उस माता-पिता की स्थिति क्या होगी, जिनका एकमात्र कुलदीपक चला जाए। और किसी को 2-3 पुत्र हों तो भी इस प्रकार की घटनाएं क्या समाज में किसी भयानक विषमता को जन्म नहीं दे रही हैं! क्या यह विवाह संस्था को नष्ट करने का दुर्लभ लक्षण नहीं हैं।
आजकल लुटेरी दुल्हन, सीमेंट के ड्राम में भर देने वाली दुल्हन, गला रेत देने वाली दुल्हन, जहर खिला देने वाली दुल्हन, छत से गिरा देने वाली दुल्हन नित्य ही समाचार माध्यमों की सुर्खियां बनती हैं। ये कैसी विडंबना है कि आज पुत्रियां हत्यारिन बनती जा रही हैं। और हर हत्या के पीछे कोई न कोई पूर्व में शारीरिक संबंध या पूर्व प्रेम या विवाहेतर संबंध मिल रहा है।
ये अपराध तथाकथित प्रेम संबंधों या कामवासना के उद्वेग के कारण कारित हो रहे हैं। तो क्या केवल युवा पीढ़ी ही इन अपराधों की कारक है या इस मानसिकता के जन्म और विस्तार के लिए कोई और भी दोषी है…?
प्रश्न उठता है कि :
ऐसे मामलों में जघन्य अपराध को कारित करने वाले ही अपराधी हैं या इन अपराधों के अपराधी वास्तव में वे माता-पिता, देश की शिक्षा व्यवस्था, रोजगार व्यवस्था, कानूनी व्यवस्था और शासन संविधान भी हैं…?
जवाब— (1) आजकल के माता-पिता और देश की व्यवस्थाएं सर्वप्रथम बच्चों की ठीक से परवरिश नहीं कर पा रहे हैं और उसके बाद उन्हें नोट कमाने की मशीन बनाने के चक्कर में बच्चों के लिव-इन और तथाकथित प्रेम संबंधों और शरीर संबंधों को जानकर भी अनदेखा करते हैं और माता-पिता उन्हें ‘व्यवस्थित विवाह’ की घुट्टी भी पिलाते हैं, लेकिन संस्कार देने के दायित्व को भूल जाते हैं। इसके मूल में देश की कानून व्यवस्था खासतौर पर सुप्रीम कोर्ट के कुसंस्कृतिक जजों की घटिया सोच और विचारधारा है ।
(2) आज देश की सरकार और व्यवस्थाएं बेटियों को स्वतंत्र रूप से अपने पैरों पर खड़े होने को प्रोत्साहित करने की नीति भी ‘घर बिगाड़ नीति’ सिद्ध हो रही है, क्योंकि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का यह लाभ तो हुआ कि बेटियां रोजगार और तकनीकी क्षेत्रों में बराबर की हिस्सेदारी निभा रही हैं। परंतु बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ से आगे चलकर अब स्थिति ‘बेटियों से बचाओ’ के स्तर पर पहुंच गई है। और विधिक विषमताएं स्त्री पक्ष में होने के कारण बेटों को न्याय कम या कहें नहीं ही मिल पा रहा है। इसके अपवाद हो सकते हैं। लेकिन इन परिस्थितियों में युवा पुरुष अब विवाह से कतराने लगे हैं। और अपने पैरों पर खड़ी बेटी भी अब स्वतंत्र ही रहना चाहती है। वह नहीं चाहती कि कोई उसकी स्वतंत्रता का हनन करे और उस पर राज करे।
(3) सरकार ने बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ का नारा तो दिया। बेटों के साथ बेटियों का व्यवहार कैसा हो, उसके गृहस्थ का दायित्व क्या है, बेटियों की परिवार के प्रति जिम्मेदारी का कोई पाठ किसी पाठ्यक्रम में नहीं रखा और न ही सुप्रीम कोर्ट हर मामलों की तरह भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश को सुदृढ़ करने और नए कुप्रथाओं को रोकने के लिए sumoto एक्शन लेता है । उसका परिणाम यह है कि अधिकतर बेटियां अच्छा वेतन मिलने की स्थिति में अपने पति को मजदूर की स्थिति में समझने लगती हैं या वे पति की आवश्यकता ही नहीं समझती हैं। तब क्या शेष रहता है! क्योंकि पुरुषार्थ और पातक, दोनों ही ओर काम अपना प्रबल रूप दिखाता है। कोई भी जीव इस व्यवस्था से बाहर नहीं हो सकता। वासना और कामना जन्म से मृत्यु तक पीछा करती हैं। जिसका परिणाम भारत की व्यभिचार व्यवस्था है।
क्या कोई सोच सकता था कि विश्व के सांस्कृतिक अग्रदूत भारत की नई पीढ़ी लिव-इन के नाम पर बर्बाद कर दी जा सकेगी l
व्यभिचार के लिए न्याय व्यवस्था का समर्थन मिल सकेगा।
लेकिन यह सच है कि आज यह दोनों ही स्थितियां हो चली हैं। भारत की विवाह व्यवस्था, जो पूरे संसार को चकित करती थी। सनातन के गहरे विश्वास पर आधारित विवाह व्यवस्था, जिसमें तलाक जैसा कोई शब्द भी नहीं था। जिसमें डोली आती थी और अर्थी के साथ ही बाहर आती थी। उस जीवंत और दायित्व की प्राकृतिक परंपरा का ह्रास होना आज किसी बड़े दुर्भाग्य से कम नहीं है।
सनातन की संस्कृति को नष्ट करने में संविधान और राज्य सरकारों सहित सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट न्यायपालिका की भूमिका अशोभनीय और संदेह के घेरे में है।
और आज इस पर ‘गहन चिंतन मनन’ की आवश्यकता है। विद्वानों को इस पर विचार करना चाहिए और देश को रसातल में जाने से रोकना चाहिए। पश्चिम के अंधानुकरण के कारण देश नष्ट होने के कगार पर है। “जिस देश की संस्कृति नष्ट हो जाती है, वह केवल अराजक तत्वों की शरणस्थली बन जाता है।” जो समाज में तोड़-फोड़कर आतंक मचाता है और देश को आसुरी शक्तियों पर निर्भर कर देता है।
क्या भारत के नागरिक, सरकारें और कानून व्यवस्था इस महान विपत्ति से देश के कर्णधारों को बचा सकती हैं…?
नोट :- आज इस विषय पर भारत के प्रत्येक हिंदू परिवारों को चिंतन करने की आवश्यकता है अन्यथा आने वाले समय में अपने आप पतन निश्चित है। और यह कभी ना सोचें कि यह आपका काम नहीं है क्योंकि अगर आप एक हिन्दू हैं तो यह आपका कर्तव्य है कि समाज में हो रही घटनाओं से लोगों को अवगत कराएं। क्योंकि यह एक प्रकार से सनातन का ही अंग है। इस पोस्ट में लिखित विवरण मेरा व्यक्तिगत विचार है l यदि कोई भी श्रीमान/श्रीमती इससे सहमत नहीं हो तो मैं उनसे विनम्रता पूर्वक क्षमा प्रार्थी हूं l 👏
चक्रपाणि पाण्डेय
एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट l